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Dikshaprakashah - Paperback

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भारतवर्ष में प्राचीनकाल से लेकर आज तक देवोपासना की एक अविच्छिन्न एवं जीवन्त परम्परा रही है । यह परम्परा निगमागम सम्मत है किन्तु आजकल के तामसिक भावावरण ने उपासना के वास्तविक स्वरूप को प्रच्छन्न कर लिया है जिसके कारण हम उपासना के मात्र बाह्यांगों तक ही सीमित रह गए हैं । देवोपासना में तान्त्रिक-विधानों के अन्तर्गत एक स्तर से दूसरे स्तर में तथा एक तत्त्व से दूसरे तत्त्व में आरूढ़ होने का एक विशेष क्रम है । इसका रहस्य-भेदन तत्तद् सम्प्रदायों में होता है जहाँ सद्गुरु दीक्षा के माध्यम से इनका रहस्योद्घाटन करते हैं । जिस प्रणाली के अवलम्बन से हम आत्मस्थ गुप्त शक्तियों की उपलब्धि से नाना प्रकार की अलौकिक शक्तियों को प्राप्त कर सृष्टि-रहस्य, भगवत्लीला-रहस्य, आत्मोन्नयन आदि के ज्ञान-विज्ञान सम्मत अनेक गूढ़ रहस्यों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करते हैं वह प्रणाली ”तन्त्र“ कहलाती है । इसी तन्त्र-प्रक्रिया को उद्धत करता हुआ कृष्णानन्द आगमवागीश कृत ”तन्त्रसार“ एवं महीधर कृत ”मन्त्रमहोदधि“ का निष्कर्षभूत एक प्रकृत ग्रन्थ ”दीक्षाप्रकाश“ भी है जो तान्त्रिक-रीति से सांगोपांग उपासना करने की विधियों से परिपूर्ण, एक संक्षिप्त किन्तु पूर्ण ग्रन्थ है । दीक्षाप्रकाश नामक यह ग्रन्थ कुल नौ प्रकाशों (अध्यायों) में परिपूर्ण है । प्रथम प्रकाश में गुरु-शिष्य लक्षण, मन्त्रग्रहण-विचार, दीक्षा-कालनिर्णय, मन्त्र के संस्कारांे के प्रकार, शतार्ध से भी अधिक की संख्या में देवी-देवताओं के मन्त्र एवं उनकी गायत्राी, नवग्रहों के तान्त्रिक-मन्त्र, मंगलादि योगिनियों के मन्त्र, मन्त्र-ग्रहण की विधि आदि का विवरण है। द्वितीय प्रकाश में पुरचरण की विधि, तृतीय प्रकाश में मन्त्रों के संस्कार की विधि, चतुर्थ प्रकाश में पंचायतनी पूजा की विधि, पंचम प्रकाश में कुलुका-निर्णय, षष्टम प्रकाश में शिवा-बलि के प्रकार एवं अनुकल्पादि द्रव्यों का वर्णन, सप्तम प्रकाश में वैदिक रीति से भगवान् विष्णु के षोडशोपचारों का वर्णन, अष्टम प्रकाश में दुर्गासप्तशती, शतचण्डी और सहस्रचण्डी की विधि एवं नवम प्रकाश में भगवान् शिव की पार्थिवपूजा-विधि आदि का वर्णन है। इस प्रकार से यह ग्रन्थ शैव, शाक्त और वैष्णव सम्प्रदाय के अनुयायियों के लिए परम उपादेय है ।

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